Thursday, 12 July 2012

बंध

नाचे कौन नचाये कौन, ये  मालिक जाने
हम तो तेरे पैरों के, थिरकन पे थिरक बैठे ..

ये अक्सर होता है , जो बनाता है वो भोगता ही नहीं .
आइना दिखाता है हमें , वो कभी देखता ही नहीं ..

खुल जाये जो बंध , वो गांठ होती है ?
न टूटे न खुले , वो तेरा मेरा रिश्ता ..

3 comments:

  1. मन को छू लेने वाली रचना....

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  2. बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....


    जयपुर दर्पण
    पर भी पधारेँ।

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